परिचय:
जब धर्म बिकने लगे और दीक्षा पैकेज बन जाए — तो समझ लीजिए कि बाबा नहीं, व्यापारी सामने खड़ा है।
आजकल के कई “बाबा” धार्मिक लिबास में व्यापार कर रहे हैं, और लोगों की भावनाओं को, जाति को, और भक्ति को अपने फायदे का माध्यम बना चुके हैं।
Achal Nath इसका जीता-जागता उदाहरण हैं।

🧾 कैसे चलता है ये धार्मिक बिज़नेस मॉडल:
- दिखावटी अघोरीपन का ब्रांडिंग:
- जटाएं, भस्म, श्मशान की बातें — और फिर सोशल मीडिया पर वीडियो, रील्स, पोस्ट्स।
- “अघोरी बाबा” का ब्रांड बना दिया जाता है।
- फिक्स रेट वाली दीक्षा:
- ₹30,000 से ₹51,000 तक पैकेज – “दीक्षा कराइए, जीवन बदलिए।”
- गरीब और पिछड़ी जातियों के लिए शोषण, ब्राह्मणों के लिए मुफ्त कृपा।
- जाति आधारित VIP भक्त निर्माण:
- ब्राह्मण शिष्यों को “नज़दीकी” और “विशेष कृपा” का चारा देकर भेदभाव फैलाया जाता है।
- प्रॉपर्टी, संपत्ति और इन्वेस्टमेंट:
- बाबा के नाम पर भूमि, मकान, दुकान, किराया – सब कुछ होता है, फिर भी वे खुद को “सन्यासी” कहते हैं।
- सोशल मीडिया और फॉलोअर्स का खेल:
- वीडियो शूट, एडिटिंग, कंटेंट प्लानिंग – ताकि दिख सके “कितना चमत्कारी बाबा है!”

📉 जब धर्म एक ‘सर्विस’ बन जाए:
“गुरु और ग्राहक का रिश्ता बन गया है।”
“कृपा भी अब पैसों पर मिलती है।”
- भक्ति = इंवेस्टमेंट
- दीक्षा = फीस
- कृपा = ऑफर
- जाति = एलिजिबिलिटी
😔 Achal Nath – एक केस स्टडी:
- पत्नी और बच्चे के साथ रहते हुए खुद को “अघोरी” कहना।
- ₹30,000 में दीक्षा देना।
- ब्राह्मणों को फ्री सुविधा देना।
वीडियो और प्रचार से “साख” बनाना।
- पीछे से सम्पत्ति और दुकान से कमाई करना।
क्या यह धर्म है? क्या यह सन्यास है?
⚠️ भक्तों के लिए चेतावनी:
“जो धर्म को बेचता है, वो साधु नहीं, व्यापारी है।”
“जो जात-पात की दुकान चलाता है, वो गुरु नहीं, बंटवारे का दलाल है।”
🙏 संदेश:
“धर्म वह है जो सबको जोड़े, जो बिके नहीं।”
“सच्चा साधक दिखावा नहीं करता, और सच्चा गुरु जाति नहीं पूछता।”